कृषी विधेयके म्हणजे ‘कंत्राटी-शेतीपद्धती’

मित्रहो, खालील सगळ्याचा अर्थ फार फार गंभीर आणि जनसामान्यांचं जीवन उध्वस्त करुन त्यांना अखंड गुलामगिरीत ढकलण्याचा फक्त, आहे… गेल्या दोनतीन दशकांपूर्वीपासूनच आम्ही “कंत्राटी कामगार-कर्मचारी पद्धती”ची अवदसा आली, …आता ‘कंत्राटी-शेतीपद्धती’ येणार, हे गंभीर इशारे सातत्याने देत होतो; पण, ऐकतो कोण???

“शहर-उपनगरातले नोकरदार आणि ग्रामीण भागातल्या शेतकऱ्यांसह अलुतेदार-बलुतेदार, बाजारपेठेतील आपली सगळी ‘आर्थिकपत’ या ‘कंत्राटीकरणा’च्या फेऱ्यात गमावून बसले की, ‘मतदार’ म्हणूनही त्यांच्या राजकीय किंमतीचा बाजारभाव देखील, रस्त्यावर विक्रीला आलेल्या मालासारखा ‘बाराच्या भावा’त जातो”!

१) “कंत्राटी कामगार-कर्मचारी पद्धती”ने सगळ्या कामगार-चळवळीचं साफ कंबरडं मोडून कामगार-कर्मचारीवर्गाला यथावकाश कायमचं “नव-अस्पृश्य व गुलाम” बनवण्यात आलं… आता, कायद्यानेच “कंत्राटी-शेती” (Contract-Farming) राबवल्यामुळे मुळापासून शेतकरी-शेतमजूर (सुरुवातीला थोडा सुखावला तरी, जसे कारखान्यातले कायम कामगार “कंत्राटी कामगार-कर्मचारी पद्धती”ने सुखावले होते… आरामासोबत ‘इन्सेंटिव्ह’ मिळायला लागले होते, म्हणून) उखडला जाऊन उध्वस्त होईल. थोडक्यात, शहरवासियांनंतर गावकऱ्यांवर अवदसेचा फेरा येईल आणि ते ही, या रक्तपिपासू-शोषक व्यवस्थेच्या (Vampire-State System) सापळ्यात पूर्णपणे अडकतील!

कालपर्यंत, आम्ही केवळ तुटपुंज्या पगारावर, पूर्णतया असुरक्षित नोकरीच्या गुलामीत राबणाऱ्या कामगारांना म्हणायचो की, “कारखान्यात हात काळे करुन अपमानाने जगण्यापेक्षा, शेतात हात काळे करुन सन्मानाने जगा”… आता, तो ही ग्रामीण भारतातला सन्मान ‘कंपनी-सरकार’कडून हिरावून घेतला गेल्याने, हे म्हणण्याची यापुढे सोयच राहणार नाही!!!

२) जगभरात अमानुष व राक्षसी ‘आर्थिक-विषमता’, ही मोठी समस्या असताना व ती सोडवण्यासाठी आपल्या स्थापनेची पंच्याहत्तरी साजरी करणारी युनो (संयुक्त राष्ट्र संघ), आपल्या १७ SDGs च्या आंतरराष्ट्रीय पातळीवरुन केल्या जाणाऱ्या कठोर अंमलबजावणीद्वारे (Sustainable Development Goals) सदरहू ‘आर्थिक-विषमता’, न्यूनतम पातळीवर आणण्यासाठी प्रयत्न करत असताना…. ती समस्या अधिक अक्राळविक्राळ करण्याचं काम इमानेइतबारे भाजपाचं नरेंद्र मोदी सरकार करतंय (कारण, बड्या भांडवलदारांकडूनच त्यांचा हजारो कोटींचा महाप्रचंड निवडणूकनिधी येतो)!

राजन राजे (अध्यक्ष: धर्मराज्य पक्ष)


…नोकरशाहीने, कायद्याच्या परिभाषेत कायद्याला दिलेले नाव, परिपत्रकात वापरलेली भाषा बरेच काही कॅमोफ्लेज् करत असते…

‘‘राजकीय अर्थव्यवस्थेच्या’’ चष्म्यातून बघितले की, त्याचे अर्थ लख्ख कळतातच!

‘‘The Farmers Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Ordinance, 2020’’, याचा सामान्य माणसाला कळेल असा अर्थ आहे,

मंड्याना ‘बायपास’ करून शेतमालाचे खरेदी-विक्रीचे व्यवहार करण्याचे स्वातंत्र्य; मंडित झालेल्या व्यवहारांवर काहीतरी रेग्युलेशन आहे; मंडीबाहेर व्यवहारांवर कोणाची निगराणी असणार, याबद्दल संदिग्धता आहे…

  ‘‘The Essential Commodities (Amendment) Ordinance, 2020’’, याचा सामान्य माणसाला कळेल असा अर्थ आहे की,

ज्यांच्याकडे गुंतवून ठेवण्याएवढे (स्टेइंग कपॅसिटी) भांडवल आहे, अशांना अन्नधान्य, भाजीपाला गोदामात साठवून ठेवण्याचे स्वातंत्र्य! भाव पडलेले असताना साठवणूक करून अधिक नफा कमावण्याचे स्वातंत्र्य!

‘‘The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement on Price Assurance and Farm Services Ordinance, 2020’’, याचा सामान्य माणसाला कळेल असा अर्थ आहे की,

कॉर्पोरेटसनी शेतकऱ्यांकडून कंत्राटी-पद्धतीने शेती करून घेण्याला कायद्याने मान्यता देणे; त्याच्या अटी शेतकऱ्याच्या हिताच्या असतील की, नाही… याबद्दल पूर्ण संदिग्धता आहे.

…संजीव चांदोरकर (२१ सप्टेंबर-२०२०)


किसानों को लेकर जिन तीन बिलों पर आज राज्यसभा में बहस हो रही है, उसे सरल भाषा में समझिये।

  • पहला बिल- जिस पर सबसे अधिक बात हो रही है कि अब किसानों की उपज सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे।

यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर ऐसा कब था कि, किसानों की फसल को व्यापारी नहीं खरीद सकते थे। बिहार में तो अभी भी बमुश्किल ९ से १० फीसदी फसल ही सरकारी मंडियों में बिकती है। बाकी व्यापारी ही खरीदते हैं।

क्या फसल की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी? यह भ्रम है। क्योंकि बिहार में मक्का जैसी फसल सरकारी मंडियों में नहीं बिकती, इस साल किसानों को अपना मक्का ९ सौ से ११ सौ रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य १८५० रुपये प्रति क्विंटल था।

चलिये, ठीक है। हर कोई किसान की फसल खरीद सकता है, राज्य के बाहर ले जा सकता है। आप ऐसा किसानों के हित में कर रहे हैं। कर लीजिये। मगर, एक शर्त जोड़ दीजिये, कोई भी व्यापारी किसानों की फसल सरकार द्वारा निर्धारित ‘‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’’(MSP) से कम कीमत में नहीं खरीद सकेगा। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर हां, तभी माना जायेगा कि वह सचमुच किसानों की हित चिंतक है।

  • दूसरा बिल- ‘काँट्रॅक्ट-फार्मिंग’… जिस पर उतनी चर्चा नहीं हो रही है। इसमें कोई भी कार्पोरेट किसानों से कांट्रेक्ट करके खेती कर पायेगा। यह वैसा ही होगा जैसा आजादी से पहले यूरोपियन प्लांटर बिहार और बंगाल के इलाके में करते थे और गरीब किसान-मजदूरों को लुटते थे, पीसते थे।

मतलब, यह कि, कोई कार्पोरेट आयेगा और मेरी जमीन लीज पर लेकर खेती करने लगेगा। इससे मेरा थोड़ा फायदा हो सकता है। मगर मेरे गाँव के उन गरीब किसानों का सीधा नुकसान होगा जो आज छोटी पूंजी लगाकर मेरे जैसे नॉन रेसिडेन्सियल किसानों की जमीन लीज पर लेते हैं और खेती करते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर भूमिहीन होते हैं और दलित, अति पिछड़ी जाति के होते हैं। वे एक झटके में बेगार हो जायेंगे।

कार्पोरेट के खेती में उतरने से खेती बड़ी पूंजी, बड़ी मशीन के धन्धे में बदल जायेगी। मजदूरों की जरूरत कम हो जायेगी। गाँव में जो भूमिहीन होगा या सीमान्त किसान होगा, वह बदहाल हो जायेगा। उसके पास पलायन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा।

  • तीसरा बिल- एसेंशियल कमोडिटी बिल। इसमें सरकार अब यह बदलाव लाने जा रही है कि किसी भी अनाज को आवश्यक उत्पाद नहीं माना जायेगा। जमाखोरी अब गैर कानूनी नहीं रहेगी। मतलब कारोबारी अपने हिसाब से खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों का भंडार कर सकेंगे और दाम अधिक होने पर उसे बेच सकेंगे। हमने देखा है कि हर साल इसी वजह से दाल, आलू और प्याज की कीमतें अनियंत्रित होती हैं। अब यह सामान्य बात हो जायेगी। झेलने के लिए तैयार रहिये।

कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबारियों के हित में हैं और खेती के वर्जित क्षेत्र में उनके उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। अब किसानों को इस क्षेत्र से खदेड़ने की तैयारी है। क्योंकि इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है?

….पियूश मित्राकिसानों को लेकर जिन तीन बिलों पर आज राज्यसभा में बहस हो रही है, उसे सरल भाषा में समझिये।

. पहला बिल- जिस पर सबसे अधिक बात हो रही है कि अब किसानों की उपज सिर्फ सरकारी मंडियों में ही नहीं बिकेगी, उसे बड़े व्यापारी भी खरीद सकेंगे।

यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि आखिर ऐसा कब था कि, किसानों की फसल को व्यापारी नहीं खरीद सकते थे। बिहार में तो अभी भी बमुश्किल ९ से १० फीसदी फसल ही सरकारी मंडियों में बिकती है। बाकी व्यापारी ही खरीदते हैं।

क्या फसल की खुली खरीद से किसानों को उचित कीमत मिलेगी? यह भ्रम है। क्योंकि बिहार में मक्का जैसी फसल सरकारी मंडियों में नहीं बिकती, इस साल किसानों को अपना मक्का ९ सौ से ११ सौ रुपये क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य १८५० रुपये प्रति क्विंटल था।

चलिये, ठीक है। हर कोई किसान की फसल खरीद सकता है, राज्य के बाहर ले जा सकता है। आप ऐसा किसानों के हित में कर रहे हैं। कर लीजिये। मगर, एक शर्त जोड़ दीजिये, कोई भी व्यापारी किसानों की फसल सरकार द्वारा निर्धारित “न्यूनतम समर्थन मूल्य”(MSP) से कम कीमत में नहीं खरीद सकेगा। क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर हां, तभी माना जायेगा कि वह सचमुच किसानों की हित चिंतक है।

. दूसरा बिल- ‘काँट्रॅक्ट-फार्मिंग’… जिस पर उतनी चर्चा नहीं हो रही है। इसमें कोई भी कार्पोरेट किसानों से कांट्रेक्ट करके खेती कर पायेगा। यह वैसा ही होगा जैसा आजादी से पहले यूरोपियन प्लांटर बिहार और बंगाल के इलाके में करते थे और गरीब किसान-मजदूरों को लुटते थे, पीसते थे।

मतलब, यह कि, कोई कार्पोरेट आयेगा और मेरी जमीन लीज पर लेकर खेती करने लगेगा। इससे मेरा थोड़ा फायदा हो सकता है। मगर मेरे गाँव के उन गरीब किसानों का सीधा नुकसान होगा जो आज छोटी पूंजी लगाकर मेरे जैसे नॉन रेसिडेन्सियल किसानों की जमीन लीज पर लेते हैं और खेती करते हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर भूमिहीन होते हैं और दलित, अति पिछड़ी जाति के होते हैं। वे एक झटके में बेगार हो जायेंगे।

कार्पोरेट के खेती में उतरने से खेती बड़ी पूंजी, बड़ी मशीन के धन्धे में बदल जायेगी। मजदूरों की जरूरत कम हो जायेगी। गाँव में जो भूमिहीन होगा या सीमान्त किसान होगा, वह बदहाल हो जायेगा। उसके पास पलायन करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा।

. तीसरा बिल- एसेंशियल कमोडिटी बिल। इसमें सरकार अब यह बदलाव लाने जा रही है कि किसी भी अनाज को आवश्यक उत्पाद नहीं माना जायेगा। जमाखोरी अब गैर कानूनी नहीं रहेगी। मतलब कारोबारी अपने हिसाब से खाद्यान्न और दूसरे उत्पादों का भंडार कर सकेंगे और दाम अधिक होने पर उसे बेच सकेंगे। हमने देखा है कि हर साल इसी वजह से दाल, आलू और प्याज की कीमतें अनियंत्रित होती हैं। अब यह सामान्य बात हो जायेगी। झेलने के लिए तैयार रहिये।

कुल मिलाकर ये तीनों बिल बड़े कारोबारियों के हित में हैं और खेती के वर्जित क्षेत्र में उनके उतरने के लिए मददगार साबित होंगे। अब किसानों को इस क्षेत्र से खदेड़ने की तैयारी है। क्योंकि इस डूबती अर्थव्यवस्था में खेती ही एकमात्र ऐसा सेक्टर है जो लाभ में है। अगर यह बिल पास हो जाता है तो किसानी के पेशे से छोटे और मझोले किसानों और खेतिहर मजदूरों की विदाई तय मानिये। मगर ये लोग फिर करेंगे क्या? क्या हमारे पास इतने लोगों के वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था है?

….पुष्य मित्र

_____________________________________________________________________